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शब-ताब - गोपाल मित्तल कविता - Darsaal

शब-ताब

ये बरसता हुआ मौसम ये शब-ए-तीरा-ओ-तार

किसी मद्धम से सितारे की ज़िया भी तो नहीं

उफ़ ये वीरानी-ए-माहौल ये वीरानी-ए-दिल

आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा

बर्क़-ए-इल्हाम भी लहरा गई होगी शायद

लेकिन अब दीदा-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख

अब वहाँ एक अँधेरे के सिवा कुछ भी नहीं

देख उस फ़र्श को जो ज़ुल्मत-ए-शब के बा-वस्फ़

रौशनी से अभी महरूम नहीं हैं शायद

इक न इक ज़र्रा यहाँ अब भी दमकता होगा

कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा

ये ज़मीं नूर से महरूम नहीं हो सकती

किसी जाँ-बाज़ के माथे पे शहादत का जलाल

किसी मजबूर के सीने में बग़ावत की तरंग

किसी दोशीज़ा के होंटों पे तबस्सुम की लकीर

क़ल्ब-ए-उश्शाक़ में महबूब से मिलने की उमंग

दिल-ए-ज़ुहहाद में ना-कर्दा गुनाहों की ख़लिश

दिल में इक फ़ाहिशा के पहली मोहब्बत का ख़याल

कहीं एहसास का शोला ही फ़रोज़ाँ होगा

कहीं अफ़्कार की क़िंदील ही रौशन होगी

कोई जुगनू कोई ज़र्रा तो दमकता होगा

ये ज़मीं नूर से महरूम नहीं हो सकती

ये ज़मीं नूर से महरूम नहीं हो सकती

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