नज़्म
ये सच है हम जिसे मस्लूब करने जा रहे हैं
वो न रहज़न है न ज़ानी है
मगर ये जुर्म उस का कम नहीं है वो हमारे बद-दियानत शहर में
तल्क़ीन करता है दियानत की
तुम्हें मालूम है
हम सब शरीक-ए-जुर्म हैं
हम सब के चेहरों पर सियाही है गुनाहों की
तो क्यूँ न सुर्ख़-रू हो जाएँ धो कर उस के ख़ूँ से
अपने चेहरों की सियाही को
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