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कि दर गुफ़्तन नमी आयद - गोपाल मित्तल कविता - Darsaal

कि दर गुफ़्तन नमी आयद

मिरी जाँ गो तुझे दिल से भुलाया जा नहीं सकता

मगर ये बात मैं अपनी ज़बाँ पर ला नहीं सकता

तुझे अपना बनाना मोजिब-ए-राहत समझ कर भी

तुझे अपना बना लूँ ये तसव्वुर ला नहीं सकता

हुआ है बार-हा एहसास मुझ को इस हक़ीक़त का

तिरे नज़दीक रह कर भी मैं तुझ को पा नहीं सकता

मिरे दस्त-ए-हवस की दस्तरस है जिस्म तक तेरे

समझता हूँ कि तेरे दिल पे क़ब्ज़ा पा नहीं सकता

तिरे दिल की तमन्ना भी करूँ तो किस भरोसे पर

मैं ख़ुद दरगाह में तेरी ये तोहफ़ा ला नहीं सकता

मिरी मजबूरियों को भी बहुत कुछ दख़्ल है इस में

तुझी को मोरीद-ए-इल्ज़ाम मैं ठहरा नहीं सकता

मैं तुझ से बढ़ के अपनी आबरू को प्यार करता हूँ

मैं अपने इज़्ज़त-ओ-नामूस को ठुकरा नहीं सकता

तिरे माहौल की पस्ती का तअ'ना दूँ तुझे क्यूँ कर

मैं ख़ुद माहौल से अपने रिहाई पा नहीं सकता

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