एक नज़्म
वो इक आवारा ओ मजनूँ
वो इक शाएर
जिसे अपनी शराफ़त के तहफ़्फ़ुज़ में
किया था क़त्ल इक मुद्दत हुई मैं ने
वही आवारा ओ मजनूँ
वही शाएर
अदम के गोशा-ए-तारीक से बाहर निकल कर
क़हक़हे मुझ पर लगाता है
वो कहता है
कभी ऐसा भी होता है
कि सई-ए-ख़ुद-कुशी नाकाम रहती है
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