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एक हुस्न-फ़रोश लड़की के नाम - गोपाल मित्तल कविता - Darsaal

एक हुस्न-फ़रोश लड़की के नाम

मिरी जाँ गो तुझे दिल से भुलाया जा नहीं सकता

मगर ये बात मैं अपनी ज़बाँ पर ला नहीं सकता

मैं तुझ को चाहता हूँ वालिहाना प्यार करता हूँ

मैं गाता रहता हूँ पर ये नग़्मा गा नहीं सकता

तुझे अपना बनाना मौजिब-ए-राहत समझ कर भी

तुझे अपना बना लूँ ये समझ में आ नहीं सकता

बना सकता हूँ शब को अपने बिस्तर की तुझे ज़ीनत

मगर दिन में तिरे क़स्र-ए-हसीं तक जा नहीं सकता

हुआ है बार-हा एहसास मुझ को इस हक़ीक़त का

तिरे नज़दीक रह कर भी मैं तुझ को पा नहीं सकता

मिरे दस्त-ए-हवस की दस्तरस है जिस्म तक तेरे

मैं तेरी रूह की गहराइयों तक जा नहीं सकता

मैं तेरे रस-भरे होंटों को प्यारी चूम सकता हूँ

मगर मैं तेरे दिल पर आह क़ब्ज़ा पा नहीं सकता

तिरे दिल की तमन्ना भी करूँ तो किस भरोसे पर

मैं ख़ुद दरगाह में तेरे ये तोहफ़ा ला नहीं सकता

मिरी मजबूरियों को भी बहुत कुछ दख़्ल है इस में

तुझी को मोरीद-ए-इल्ज़ाम मैं ठहरा नहीं सकता

मैं तुझ से बढ़ के अपनी आबरू को प्यार करता हूँ

मैं अपनी इज़्ज़त-ओ-नामूस को ठुकरा नहीं सकता

तिरे माहौल की पस्ती का तअना दूँ तुझे क्यूँ-कर

मैं ख़ुद माहौल से अपने रिहाई पा नहीं सकता

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