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ज़बान रक़्स में है और झूमता हूँ मैं - गोपाल मित्तल कविता - Darsaal

ज़बान रक़्स में है और झूमता हूँ मैं

ज़बान रक़्स में है और झूमता हूँ मैं

कि दास्तान-ए-मोहब्बत सुना रहा हूँ मैं

न पूछ मुझ से मिरी बे-ख़ुदी का अफ़्साना

किसी की मस्त-निगाही का माजरा हूँ मैं

कहाँ का ज़ब्त-ए-मोहब्बत कहाँ की तासीरें

तसल्लियाँ दिल-ए-मुज़्तर को दे रहा हूँ मैं

फिर एक शोला-ए-पुर-पेच-ओ-ताब भड़केगा

कि चंद तिनकों को तरतीब दे रहा हूँ मैं

तुम्हारे इश्क़ में मिट कर तुम्हें दिखा दूँगा

निगाह-ए-नाज़ का ईमाँ समझ गया हूँ मैं

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