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स्वाँग अब तर्क-ए-मोहब्बत का रचाया जाए - गोपाल मित्तल कविता - Darsaal

स्वाँग अब तर्क-ए-मोहब्बत का रचाया जाए

स्वाँग अब तर्क-ए-मोहब्बत का रचाया जाए

उस के पिंदार को आईना दिखाया जाए

वज़्अ'-दारी-ए-मोहब्बत के मुनाफ़ी है तो हो

आज कॉलर पे नया फूल सजाया जाए

शे'र में तज़किरा-ए-दश्त-ओ-बयाबाँ हो मगर

इक बड़े शहर में घर अपना बसाया जाए

बॉलकोनी वो कई दिन से है वीराँ यारो

उस गली में कोई हंगामा उठाया जाए

सर ये कहता है गवारा नहीं अब बारिश-ए-संग

दिल ये कहता है उसी कूचे में जाया जाए

हम ही पीछे रहें क्यूँ दा'वा-ए-जाँ-बाज़ी में

क्या ज़रूरी है कि मर कर भी दिखाया जाए

शाइ'री में न रहा जज़्बा-ओ-एहसास को दख़्ल

अब उसे क़ौम की ख़िदमत पे लगाया जाए

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