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फ़क़त इक शग़्ल बेकारी है अब बादा-कशी अपनी - गोपाल मित्तल कविता - Darsaal

फ़क़त इक शग़्ल बेकारी है अब बादा-कशी अपनी

फ़क़त इक शग़्ल बेकारी है अब बादा-कशी अपनी

वो महफ़िल उठ गई क़ाएम थी जिस से सरख़ुशी अपनी

ख़ुदा या ना-ख़ुदा अब जिस को चाहो बख़्श दो इज़्ज़त

हक़ीक़त में तो कश्ती इत्तिफ़ाक़न बच गई अपनी

बस अब गुज़़रेंगे राह-ए-ज़िंदगी से बे-नियाज़ाना

अगर तेरे करम पर मुनहसिर है ज़िंदगी अपनी

बहुत जी चाहता है ये फ़क़त नक़्स-ए-बसारत हो

बड़ी सुरअ'त से दुनिया खो रही है दिलकशी अपनी

ख़मोशी पर भी है उन को गुमाँ अर्ज़-ए-तमन्ना का

ज़बान-ए-हाल से कुछ कह गई वारफ़्तगी अपनी

अगर तुम हँस दिए अहवाल-ए-दिल पर क्या तअ'ज्जुब है

कि मैं ख़ुद भी ब-मुश्किल ज़ब्त करता हूँ हँसी अपनी

हुई हैं बारिशें संग-ए-मलामत की बहुत लेकिन

रहे वज़-ए-जुनूँ क़ाएम है शोरीदा-सरी अपनी

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