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रह गई लुट कर बहार-ए-ज़िंदगी - गोपाल कृष्णा शफ़क़ कविता - Darsaal

रह गई लुट कर बहार-ए-ज़िंदगी

रह गई लुट कर बहार-ए-ज़िंदगी

ज़िंदगी है सोगवार-ए-ज़िंदगी

मेरी नज़रों में हसीं धोका है इक

जिस को कहते हैं बहार-ए-ज़िंदगी

कुलफ़तें कुछ तल्ख़ियाँ कुछ हादसे

अब यही है यादगार-ए-ज़िंदगी

मिट रहा हो जो किसी के इश्क़ में

फिर कहाँ उस को क़रार-ए-ज़िंदगी

तिरी उल्फ़त तेरा ग़म तेरा ख़याल

कुछ यही है कारोबार-ए-ज़िंदगी

अपना दिल ही जब पराया हो गया

कौन हो अब राज़-दार-ए-ज़िंदगी

तेरे दम से थी बहारों में बहार

अब कहाँ है वो बहार-ए-ज़िंदगी

सूखे पत्तों से ये कहती है ख़िज़ाँ

यूँ उतरता है ख़ुमार-ए-ज़िंदगी

अपने दामन से हवा देते रहो

बुझ न जाए ये शरार-ए-ज़िंदगी

ऐ 'शफ़क़' किस ने बिगाड़ा है इसे

कौन है पर्वरदिगार-ए-ज़िंदगी

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