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दिए से लौ नहीं पिंदार ले कर जा रही है - ग़ज़ाला शाहिद कविता - Darsaal

दिए से लौ नहीं पिंदार ले कर जा रही है

दिए से लौ नहीं पिंदार ले कर जा रही है

हवा अब सुब्ह के आसार ले कर जा रही है

हमेशा नोच लेती थी ख़िज़ाँ शाख़ों से पत्ते

मगर इस बार तो अश्जार ले कर जा रही है

मैं घर से जा रहा हूँ और लिखता जा रहा हूँ

जहाँ तक ख़्वाहिश-ए-दीदार ले कर जा रही है

ख़ला में ग़ैब की आवाज़ ने छोड़ा है मुझ को

मैं समझा था मुझे उस पार ले कर जा रही है

मुझे उस नींद के माथे का बोसा हो इनायत

जो मुझ से ख़्वाब का आज़ार ले कर जा रही है

यहाँ पर रात को अच्छा नहीं कहता है कोई

सो अपने कासा ओ दीनार ले कर जा रही है

तमाशे के सभी किरदार मारे जा चुके हैं

कहानी सिर्फ़ इक तलवार ले कर जा रही है

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