यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
खड़ी की जाएगी मुझ पर अभी दीवार कोई
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मौजूदगी का उस की असर होने लगा है
कहाँ तक उस की मसीहाई का शुमार करूँ
मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला
माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को
क़दमों से मेरे गर्द-ए-सफ़र कौन ले गया
चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए
मिरी गिरफ़्त में है ताएर-ए-ख़याल मिरा
कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता
उस ने जब दरवाज़ा मुझ पर बंद किया