कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
फिर भी खड़े हुए हैं शजर इक क़तार में
Allama Iqbal
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रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
मेरी पहचान बताने का सवाल आया जब
मिरी गिरफ़्त में है ताएर-ए-ख़याल मिरा
क़दमों से मेरे गर्द-ए-सफ़र कौन ले गया
उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा
राह से मुझ को हटा कर ले गया
ऐ मिरे पायाब दरिया तुझ को ले कर क्या करूँ
दूसरा कोई तमाशा न था ज़ालिम के पास
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
नहीं है बहर-ओ-बर में ऐसा मेरे यार कोई