कहाँ तक उस की मसीहाई का शुमार करूँ
जहाँ है ज़ख़्म वहीं इंदिमाल है उस का
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मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
किसी ने भेज कर काग़ज़ की कश्ती
उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
अब और देर न कर हश्र बरपा करने में
ये लोग किस की तरफ़ देखते हैं हसरत से
मौजूदगी का उस की असर होने लगा है
अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो
मेरी कश्ती को डुबो कर चैन से बैठे न तू
हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़