झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर
बंद भी कोई दरीचा नहीं रहने देता
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पहले उस ने मुझे चुनवा दिया दीवार के साथ
अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
एक इक लफ़्ज़ से मअनी की किरन फूटती है
झलकती है मिरी आँखों में बेदारी सी कोई
वही साहिल वही मंजधार मुझ को
देखने सुनने का मज़ा जब है
जो उस तरफ़ से इशारा कभी किया उस ने
राह से मुझ को हटा कर ले गया
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा
पेड़ अगर ऊँचा मिलता है
मैं तिरे वास्ते आईना था