हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़
ये कौन मेरे लिए बे-क़रार रहता है
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एक दिन दरिया मकानों में घुसा
ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ
जो मुझ पे भारी हुई एक रात अच्छी तरह
कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए
कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता
क़दमों से मेरे गर्द-ए-सफ़र कौन ले गया
अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
चाहता है वो कि दरिया सूख जाए
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की