गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
देख कर रुख़ मुझे सूरज का ये घर लेना था
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वही साहिल वही मंजधार मुझ को
मैं तिरे वास्ते आईना था
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा
आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
जो उस तरफ़ से इशारा कभी किया उस ने
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को
शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे