दूसरा कोई तमाशा न था ज़ालिम के पास
वही तलवार थी उस की वही सर था मेरा
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पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
रहेगा आईने की तरह आब पर क़ाएम
गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
वही साहिल वही मंजधार मुझ को
रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को
कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता
जो मुझ पे भारी हुई एक रात अच्छी तरह
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
कहाँ तक उस की मसीहाई का शुमार करूँ
हुस्न-ए-अमल में बरकतें होती हैं बे-शुमार
किसी ने भेज कर काग़ज़ की कश्ती