दिल ने तमन्ना की थी जिस की बरसों तक
ऐसे ज़ख़्म को अच्छा कर के बैठ गए
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मेरी कश्ती को डुबो कर चैन से बैठे न तू
उस ने जब दरवाज़ा मुझ पर बंद किया
यारों ने मेरी राह में दीवार खींच कर
अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले
देखने सुनने का मज़ा जब है
मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला
जो उस तरफ़ से इशारा कभी किया उस ने
माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है
राह से मुझ को हटा कर ले गया
कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को