चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
सफ़र अधूरा रहा आसमान ख़त्म हुआ
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चाहता है वो कि दरिया सूख जाए
कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
मिरी सिफ़ात का जब उस ने ए'तिराफ़ किया
झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर
बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
कहने सुनने का अजब दोनों तरफ़ जोश रहा
मेरी कश्ती को डुबो कर चैन से बैठे न तू
पेड़ अगर ऊँचा मिलता है
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
पहले चिंगारी उड़ा लाई हवा
बात बढ़ती गई आगे मिरी नादानी से