चाहता है वो कि दरिया सूख जाए
रेत का व्यापार करना चाहता है
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मौजूदगी का उस की असर होने लगा है
नायाब चीज़ कौन सी बाज़ार में नहीं
ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं
ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
बात बढ़ती गई आगे मिरी नादानी से
मेरी कश्ती को डुबो कर चैन से बैठे न तू
अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला
झलकती है मिरी आँखों में बेदारी सी कोई
कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल
रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को