अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
ज़ुल्मत-ए-शब में यही एक नज़ारा देखूँ
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पहले चिंगारी उड़ा लाई हवा
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है
चाहता है वो कि दरिया सूख जाए
अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई
यारों ने मेरी राह में दीवार खींच कर
देखने सुनने का मज़ा जब है
ये लोग किस की तरफ़ देखते हैं हसरत से
मेरे लब तक जो न आई वो दुआ कैसी थी
सहरा जंगल सागर पर्बत
आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ