अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है
कि हमें क़ैद भली थी तो सज़ा कैसी थी
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कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
हुस्न-ए-अमल में बरकतें होती हैं बे-शुमार
यारों ने मेरी राह में दीवार खींच कर
मौजूदगी का उस की असर होने लगा है
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
ये दौर है जो तुम्हारा रहेगा ये भी नहीं
कहने सुनने का अजब दोनों तरफ़ जोश रहा
आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल
अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ