अब और देर न कर हश्र बरपा करने में
मिरी नज़र तिरे दीदार को तरसती है
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यारों ने मेरी राह में दीवार खींच कर
ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को
नायाब चीज़ कौन सी बाज़ार में नहीं
मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला
चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले
आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल
पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
ऐ मिरे पायाब दरिया तुझ को ले कर क्या करूँ
बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो