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मौजूदगी का उस की असर होने लगा है - ग़ुलाम मुर्तज़ा राही कविता - Darsaal

मौजूदगी का उस की असर होने लगा है

मौजूदगी का उस की असर होने लगा है

सब उस के सिवा महव-ए-नज़र होने लगा है

अतराफ़ मिरे ख़ाक उड़ा करती है अक्सर

तय अब मिरी जानिब भी सफ़र होने लगा है

पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी

अब मुझ से भी ख़ाली मिरा घर होने लगा है

जल्दी से मैं अब उस की तरफ़ रुख़ नहीं करता

आईना मिरा सीना-सिपर होने लगा है

तरतीब अनासिर की बिगड़ने लगी शायद

आलम मिरा अब ज़ेर-ओ-ज़बर होने लगा है

अब संग-दिली मुझ से छुपाए नहीं छुपती

आँखों से नुमूदार शरर होने लगा है

अर्सा कोई दरकार हुआ करता था 'राही'

अब रोज़ कोई मारका सर होने लगा है

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