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बढ़ा जब उस की तवज्जोह का सिलसिला कुछ और - ग़ुलाम मुर्तज़ा राही कविता - Darsaal

बढ़ा जब उस की तवज्जोह का सिलसिला कुछ और

बढ़ा जब उस की तवज्जोह का सिलसिला कुछ और

ख़ुशी से फैल गया ग़म का दायरा कुछ और

नतीजा देख के माना मिरे मसीहा ने

कुछ और दर्द था मेरा हुई दवा कुछ और

मैं अपने आप को किस आईने में पहचानूँ

कि एक अक्स मिरा कुछ है दूसरा कुछ और

अगर कहीं कोई दीवार सामने आई

बुलंद हो गया पानी का हौसला कुछ और

कुछ ऐसे देखता है वो मुझे कि लगता है

दिखा रहा है मुझे मेरा आइना कुछ और

नतीजा देखने सुनने के बअ'द ये निकला

बयान-ए-वाक़िआ कुछ अम्र-ए-वाक़िआ कुछ और

गुज़र मुहाल न होता हमारा बस्ती में

जो उठतीं छोड़ के दीवारें रास्ता कुछ और

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