Ghazals of Ghulam Murtaza Rahi (page 1)
नाम | ग़ुलाम मुर्तज़ा राही |
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अंग्रेज़ी नाम | Ghulam Murtaza Rahi |
जन्म की तारीख | 1937 |
वही साहिल वही मंजधार मुझ को
उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा
ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले
शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
राह से मुझ को हटा कर ले गया
क़दमों से मेरे गर्द-ए-सफ़र कौन ले गया
पेड़ अगर ऊँचा मिलता है
पस्त-ओ-बुलंद में जो तुझे रिश्ता चाहिए
नायाब चीज़ कौन सी बाज़ार में नहीं
नहीं है बहर-ओ-बर में ऐसा मेरे यार कोई
न मिरा ज़ोर न बस अब क्या है
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला
मिरी सिफ़ात का जब उस ने ए'तिराफ़ किया
मिरी गिरफ़्त में है ताएर-ए-ख़याल मिरा
मेरे लब तक जो न आई वो दुआ कैसी थी
माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है
मौजूदगी का उस की असर होने लगा है
कहने सुनने का अजब दोनों तरफ़ जोश रहा
कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए
जो मुझ पे भारी हुई एक रात अच्छी तरह
झलकती है मिरी आँखों में बेदारी सी कोई
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
हैं और कई रेत के तूफ़ाँ मिरे आगे
फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो
बढ़ा जब उस की तवज्जोह का सिलसिला कुछ और
बात बढ़ती गई आगे मिरी नादानी से