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कितनी ढल गई उम्र तुम्हारी हैरत है - ग़ुलाम मोहम्मद वामिक़ कविता - Darsaal

कितनी ढल गई उम्र तुम्हारी हैरत है

कितनी ढल गई उम्र तुम्हारी हैरत है

अब तक कैसे रही कुँवारी हैरत है

घर में आटा दाल न दलिया फिर भी शैख़

बाहर खाएँ नान-नहारी हैरत है

अपना रोज़ का मिलना आख़िर काम आया

अम्मी बन गईं सास तुम्हारी हैरत है

हम तो तेरे तीर-ए-नज़र से मर जाते

लेकिन तेरे हाथ में आरी हैरत है

तेरे रुख़्सारों से दुनिया रौशन थी

कैसे हो गई ज़ुल्मत तारी हैरत है

बंगला गाड़ी साथ में नौकर-चाकर भी

लेकिन बाबू है सरकारी हैरत है

तुम को इक दिन सुब्ह-सवेरे देखा था

कैसी थी वो शक्ल तुम्हारी हैरत है

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