कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
और डूबने वालों का जज़्बा भी नहीं बदला
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
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Gulzar
Jaun Eliya
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रात उस के सामने मेरे सिवा भी मैं ही था
यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई
ज़िंदगी
किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं
ऊँचे दर्जे का सैलाब
ख़ुशबू गिरफ़्त-ए-अक्स में लाया और उस के बाद
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है
सोचा है तुम्हारी आँखों से अब मैं उन को मिलवा ही दूँ
पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना
तज़ाद
जज़्बों को किया ज़ंजीर तो क्या तारों को किया तस्ख़ीर तो क्या