करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता
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ये जहाँ-नवर्द की दास्ताँ ये फ़साना डोलते साए का
इस तरह क़हत-ए-हवा की ज़द में है मेरा वजूद
बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था
वो बे-दिली में कभी हाथ छोड़ देते हैं
गुलाबों के नशेमन से मिरे महबूब के सर तक
बन से फ़सील-ए-शहर तक कोई सवार भी नहीं
कुछ बे-तरतीब सितारों को पलकों ने किया तस्ख़ीर तो क्या
फिर वो दरिया है किनारों से छलकने वाला
तिरी आवाज़ को इस शहर की लहरें तरसती हैं
किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं
फिर वही कहने लगे तू मिरे घर आया था
जज़्बों को किया ज़ंजीर तो क्या तारों को किया तस्ख़ीर तो क्या