इरादा था जी लूँगा तुझ से बिछड़ कर
गुज़रता नहीं इक दिसम्बर अकेले
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जिस को इस फ़स्ल में होना है बराबर का शरीक
अक्स की सूरत दिखा कर आप का सानी मुझे
ख़ामोश थे तुम और बोलता था बस एक सितारा आँखों में
ज़मानों को उड़ानें बर्क़ को रफ़्तार देता था
प्यार गया तो कैसे मिलते रंग से रंग और ख़्वाब से ख़्वाब
सीना मदफ़न बन जाता है जीते जागते राज़ों का
गुलाबों के नशेमन से मिरे महबूब के सर तक
बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
रात उस के सामने मेरे सिवा भी मैं ही था
ये भी इक रंग है शायद मिरी महरूमी का