हम तो वहाँ पहुँच नहीं सकते तमाम उम्र
आँखों ने इतनी दूर ठिकाने बनाए हैं
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ये भी इक रंग है शायद मिरी महरूमी का
बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
एक ज़ाती नज़्म
अब उसी आग में जलते हैं जिसे
सब रंग ना-तमाम हों हल्का लिबास हो
फिर वो दरिया है किनारों से छलकने वाला
इरादा था जी लूँगा तुझ से बिछड़ कर
तज़ाद
हज़ारों इस में रहने के लिए आए
आफ़ाक़ में फैले हुए मंज़र से निकल कर
हम ने तुम्हारे ग़म को हक़ीक़त बना दिया