हर साल की आख़िरी शामों में दो चार वरक़ उड़ जाते हैं
अब और न बिखरे रिश्तों की बोसीदा किताब तो अच्छा हो
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तिरी आवाज़ को इस शहर की लहरें तरसती हैं
शौक़ बरहना-पा चलता था और रस्ते पथरीले थे
रात उस के सामने मेरे सिवा भी मैं ही था
सोचा है तुम्हारी आँखों से अब मैं उन को मिलवा ही दूँ
बन से फ़सील-ए-शहर तक कोई सवार भी नहीं
इरादा था जी लूँगा तुझ से बिछड़ कर
नाम लिख लिख के तिरा फूल बनाने वाला
कहफ़-उल-क़हत
हर साल बहार से पहले मैं पानी पर फूल बनाता हूँ
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
ज़िंदगी