दिन अंधेरों की तलब में गुज़रा
रात को शम्अ जला दी हम ने
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वफ़ा के शहर में अब लोग झूट बोलते हैं
तज़ाद
एक ज़ाती नज़्म
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
उम्मीद की सूखती शाख़ों से सारे पत्ते झड़ जाएँगे
आफ़ाक़ में फैले हुए मंज़र से निकल कर
यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई
ज़मानों को उड़ानें बर्क़ को रफ़्तार देता था
बन से फ़सील-ए-शहर तक कोई सवार भी नहीं
मिलने की हर आस के पीछे अन-देखी मजबूरी थी
पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना
बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था