बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था
मगर वो शहर के रस्ते से आया था
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वो लोग मुतमइन हैं कि पत्थर हैं उन के पास
नज़र नज़र में अदा-ए-जमाल रखते थे
कुछ बे-तरतीब सितारों को पलकों ने किया तस्ख़ीर तो क्या
नाम लिख लिख के तिरा फूल बनाने वाला
कोई मुँह फेर लेता है तो 'क़ासिर' अब शिकायत क्या
वो बे-दिली में कभी हाथ छोड़ देते हैं
सीना मदफ़न बन जाता है जीते जागते राज़ों का
कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
गुलाबों के नशेमन से मिरे महबूब के सर तक
जिस को इस फ़स्ल में होना है बराबर का शरीक
सोते हैं वो आईना ले कर ख़्वाबों में बाल बनाते हैं