बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
वो शख़्स जिस का मुझे नाम भी नहीं आता
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गुलाबों के नशेमन से मिरे महबूब के सर तक
यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई
फिर वो दरिया है किनारों से छलकने वाला
मिलने की हर आस के पीछे अन-देखी मजबूरी थी
बन से फ़सील-ए-शहर तक कोई सवार भी नहीं
कोई मुँह फेर लेता है तो 'क़ासिर' अब शिकायत क्या
हर साल की आख़िरी शामों में दो चार वरक़ उड़ जाते हैं
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
सोचा है तुम्हारी आँखों से अब मैं उन को मिलवा ही दूँ
सायों की ज़द में आ गईं सारी ग़ुलाम-गर्दिशें
आया है इक राह-नुमा के इस्तिक़बाल को इक बच्चा
ख़्वाब कहाँ से टूटा है ताबीर से पूछते हैं