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ज़िंदगी - ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर कविता - Darsaal

ज़िंदगी

ज़िंदगी

इतनी सादा भी नहीं कि एक ब्लैक-एण्ड-वाइट टी-वी-सेट

उस के रंगों का अहाता कर सके

मगर रंगीन-सेट भी तो शाइराना मुबालग़े से काम लेते हैं

हो सकता है पॉकेट-भर हयात में सात पॉकेट रंग

उँडेलने वालों की हक़ीक़ी ज़िंदगी यही हो

रूह और ज़मीर की उम्र-भर की कमाई सियाह रंग की पुड़िया है

किसी फ़ाहिशा के बदन से उड़ते हुए लम्हे का

धनक-भर मुआवज़ा तो नहीं

माहेरीन गिरानी और गुनाह में तनासुब-ए-माकूस नहीं मानते

तो आओ ज़िंदगी को इन्ही निगेटीव्ज़ में देखें

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