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समीता-पाटिल - ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर कविता - Darsaal

समीता-पाटिल

दिल के मंदर में ख़ुशबू है लोबान की, घंटियाँ बज उठीं, देव-दासी थी वो

कितने सरकश अँधेरों में जलती रही देखने में तो मशअल ज़रा सी थी वो

नूर ओ नग़्मा की रिम-झिम फुवारों तले मुस्कुराती हुई इक उदासी थी वो

पानियों की फ़रावानियों में रवाँ उस की हैरानियाँ कितनी प्यासी थी वो

हुस्न-ए-इंसाँ से फ़ितरत की सरगोशियाँ घुल गईं तेरे लहजे की झंकार में

फ़न की तकमील सच्चा सरापा तिरा, बे-ज़बानी को लाया जो इज़हार में

मुद्दतों तक नुमाइश की ख़्वाहिश रही ज़िंदगी तब ढली तेरे किरदार में

जो थी ज़िंदा मोहब्बत की बुनियाद पर वक़्त ने चुन दिया उस को दीवार में

धूप हर रूप में, रेत हर खेत में, फ़स्ल जज़्बात पर ख़ुश्क-साली रहे

दो घड़ी दिल किसी के ख़यालों में गुम और फिर उम्र भर बे-ख़याली रहे

आइना अब तरसता रहे अक्स को और नज़र रौशनी की सवाली रहे

मेरे हिस्से का ये आँख भर आसमाँ जगमगाते सितारे से ख़ाली रहे

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