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कहफ़-उल-क़हत - ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर कविता - Darsaal

कहफ़-उल-क़हत

पीर-बख़्श बिल्डिंग से पीर-बख़्श के मरक़द तक

अपनी ही बख़्शिश की दुआओं के कर्बज़ार से गुज़र कर आने वाली

सर पर गुज़िश्ता माह ओ साल के कितने ही थाल उठाए

आज भी एक क़ब्र-ए-गुम-गश्ता का निशाँ और अपने मादूम कल के लिए ख़ित्ता-ए-अमाँ

एक साथ ढूँड रही है

उस के नंगे तलवों से छूने वाली तपिश की लहर लहर उसे अपने

खिलौनों से महरूम बचपन के साथ साथ वो बहारें भी याद दिला जाती है

जब किसी अन-देखे झोंके से महक उठने की ख़्वाहिश में उस के सपने

पस-ए-दीवार मुरझा गए और उस के बाल चम्बेली के फूल बनते गए

और फिर उस की कलाइयों में पहनी हुई झुर्रियों में तलाई चूड़ियों

के अक्स झिलमिलाने लगे

अभी अभी एक बे-तरतीब साहूकार अपने बिखरे हुए नोटों

को तरतीब देने का जाँ-गुसिल फ़रीज़ा सर-अंजाम देते देते थक गया

माई मर्यम ने पहले तो नोटों में मुक़य्यद ज़रूरतों से मुलाक़ात

की एक और कोशिश की

और फिर एक नज़र आसमान पर डाली जैसे वहाँ भी कोई रहता हो

उस की आँखों से निकलने के लिए बे-ताब हसरतों में से

कुछ तो उन गोलियों को भी भिगो गईं

जिन्हें अपने लरज़ते हाथों में लेते ही उसे यक़ीन हो चला था

कि आज रात उसे कोई दर्द नहीं सताएगा

और सुब्ह को खाँसी का दौरा भी नहीं पड़ेगा

मगर कहाँ....

बीमारियाँ भी आज कल अपने मिज़ाज में बहुत बे-नियाज़ हो गई हैं

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