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ये जहाँ-नवर्द की दास्ताँ ये फ़साना डोलते साए का - ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर कविता - Darsaal

ये जहाँ-नवर्द की दास्ताँ ये फ़साना डोलते साए का

ये जहाँ-नवर्द की दास्ताँ ये फ़साना डोलते साए का

मिरे सर-बुरीदा ख़याल हैं कि धुआँ है सूनी सराए का

वो हवा का चुपके से झाँकना किसी भूले बिसरे मदार से

कहीं घर में शहर की ज़ुल्मतें कहीं छत पे चाँद किराए का

गिल-ए-माह घूमते चाक पर कफ़-ए-कूज़ा-गर से फिसल गई

कि बिसात-ए-गर्दिश-ए-साल-ओ-सिन यही फ़र्क़ अपने पराए का

मिरा नुत्क़ भी है निगाह भी मिरी शाइरी का गवाह भी

तिरी दोस्ती के महाज़ पर वो लरज़ता अक्स किनाए का

कि उसी के नाम तक आए थे ये सदा-ओ-सिद्क़ के सिलसिले

वही शख़्स जिस ने तिरे लिए किया क़त्ल सोचती राय का

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