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वादे यख़-बस्ता कमरों के अंदर गिरते हैं - ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर कविता - Darsaal

वादे यख़-बस्ता कमरों के अंदर गिरते हैं

वादे यख़-बस्ता कमरों के अंदर गिरते हैं

मेरे सेहन में झुलसे हुए कबूतर गिरते हैं

कहते हैं इन शाख़ों पर फल फूल भी आते थे

अब तो पत्ते झड़ते हैं या पत्थर गिरते हैं

ख़ूँ के ये धारे हम ने पहली बार नहीं देखे

लेकिन अब इन दरियाओं में समुंदर गिरते हैं

सुन लेते हैं सरगोशी को चुप में ढलते हुए

चुन लेते हैं तीर जो अपने बराबर गिरते हैं

ज़िक्र हमारा होने लगा अब ऐसा मिसालों में

दरियाओं के रुख़ पे बने घर अक्सर गिरते हैं

जाने कैसे ज़लज़ले इन आँखों में आन बसे

पर्दा उठने लगता है तो मंज़र गिरते हैं

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