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सीना मदफ़न बन जाता है जीते जागते राज़ों का - ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर कविता - Darsaal

सीना मदफ़न बन जाता है जीते जागते राज़ों का

सीना मदफ़न बन जाता है जीते जागते राज़ों का

जाँचना ज़ख़्मों की गहराई काम नहीं अंदाज़ों का

सारी चाबियाँ मेरे हवाले कीं और उस ने इतना कहा

आठों पहर हिफ़ाज़त करना शहर है नौ दरवाज़ों का

सामने की आवाज़ से मेरे हर इक राब्ते में हाइल

दाएँ बाएँ फैला लश्कर अनजानी आवाज़ों का

आँखें आगे बढ़ना चाहें पीछे रह जाती है नज़र

पलकों की झालर पे नुमायाँ काम सितारा-साज़ों का

यूँ तो एक ज़माना गुज़रा दिल-दरिया को ख़ुश्क हुए

फिर भी किसी ने सुराग़ न पाया डूबे हुए जहाज़ों का

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