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रात उस के सामने मेरे सिवा भी मैं ही था - ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर कविता - Darsaal

रात उस के सामने मेरे सिवा भी मैं ही था

रात उस के सामने मेरे सिवा भी मैं ही था

सब से पहले मैं गया था दूसरा भी मैं ही था

मैं मुख़ालिफ़ सम्त में चलता रहा हूँ उम्र भर

और जो उस तक गया वो रास्ता भी मैं ही था

सब से कट कर रह गया ख़ुद मैं सिमट कर रह गया

सिलसिला टूटा कहाँ से सोचता भी मैं ही था

सब से अच्छा कह के उस ने मुझ को रुख़्सत कर दिया

जब यहां आया तो फिर सब से बुरा भी मैं ही था

वक़्त के मेहराब में जो बे-सबब जलता रहा

रात ने मुझ को बताया वो दिया भी मैं ही था

ख़ुद से मिलने की तमन्ना पर ज़वाल आने के बाद

वो समझता है कि उस का आइना भी मैं ही था

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