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लब पे सुर्ख़ी की जगह जो मुस्कुराहट मल रहे हैं - ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर कविता - Darsaal

लब पे सुर्ख़ी की जगह जो मुस्कुराहट मल रहे हैं

लब पे सुर्ख़ी की जगह जो मुस्कुराहट मल रहे हैं

हसरतों का बोझ शानों पर उठा कर चल रहे हैं

ज़िंदगी की दौड़ में पीछे न रह जाएँ किसी से

ख़ौफ़-ओ-ख़्वाहिश के ये पैकर नींद में भी चल रहे हैं

दिल में ख़ेमा-ज़न अंधेरो कितनी जल्दी में है सूरज

जिस्म तक जागे नहीं हैं और साए ढल रहे हैं

मेरे क़िस्से में अचानक जुगनुओं का ज़िक्र आया

आसमाँ पर मेरे हिस्से के सितारे जल रहे हैं

राख होते जा रहे हैं माह-ओ-साल-ए-ज़िंदगानी

जगमगा उठ्ठा जहाँ हम साथ पल दो पल रहे हैं

माइल-ए-सज्दा ग़ुलामी भूल जा ख़ू-ए-सलामी

आज वो बादल कहाँ साया-फ़गन जो कल रहे हैं

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