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बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है - ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर कविता - Darsaal

बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है

बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है

ज़िंदगी से ये मिरा दूसरा समझौता है

लहलहाते हुए ख़्वाबों से मिरी आँखों तक

रतजगे काश्त न कर ले तो वो कब सोता है

जिस को इस फ़स्ल में होना है बराबर का शरीक

मेरे एहसास में तन्हाइयाँ क्यूँ बोता है

नाम लिख लिख के तिरा फूल बनाने वाला

आज फिर शबनमीं आँखों से वरक़ धोता है

तेरे बख़्शे हुए इक ग़म का करिश्मा है कि अब

जो भी ग़म हो मिरे मेयार से कम होता है

सो गए शहर-ए-मोहब्बत के सभी दाग़ ओ चराग़

एक साया पस-ए-दीवार अभी रोता है

ये भी इक रंग है शायद मिरी महरूमी का

कोई हँस दे तो मोहब्बत का गुमाँ होता है

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