ये शहर बुलंद आलम-ए-बाला से था
हम-शक्ल ग़रज़ जन्नत-ए-मा'वा से था
अब क्या है इक आबादी-ए-रेगिस्ताँ है
देहली को शरफ़ क़िला-ए-मुअल्ला से था
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सद-हैफ़ कि मय-नोश हुए हम कैसे
जबीन-ए-पारसा को देख कर ईमाँ लरज़ता है
था आदम-ए-ख़ाकी ग़ज़ब बे-ज़िन्हार
किस तरह से गिर्या को न हो तुग़्यानी
दुनिया का अजब रंग से देखा अंगेज़
नाला करता हूँ लोग सुनते हैं
कुफ़्र और इस्लाम में देखा तो नाज़ुक फ़र्क़ था
हो जुदा ऐ चारा-गर है मुझ को आज़ार-ए-फ़िराक़
लो जाइए बस ख़ुदा हमारा हाफ़िज़
जब बाप मुआ तो फिर है बेटा क्या शय
दिल देर-गुज़ारी से है आवंद-ए-नमक
ये वहम-ए-दुई दिल से जुदा करना था