मस्जिद को दिया छोड़ रिया की ख़ातिर
का'बे नहीं जाता तो हया की ख़ातिर
मय-ख़ाने में जाता हूँ तो रहमत के लिए
मय पीता हूँ एहसान-ए-ख़ुदा की ख़ातिर
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दुनिया में 'क़लक़' क्या है सरासर है ख़ाक
ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं
कुफ़्र और इस्लाम में देखा तो नाज़ुक फ़र्क़ था
दीदा-ए-सर्फ़-ए-इंतिज़ार है शम्अ
जो जा के न आए फिर जवानी है ये शय
है अगर कुछ वफ़ा तो क्या कहने
कहिए क्या और फ़ैसले की बात
ज़िंदगी मर्ग की मोहलत ही सही
हर ज़ख़्म-ए-जिगर खाया है दिल पर तन कर
वही वा'दा है वही आरज़ू वही अपनी उम्र-ए-तमाम है
किस वास्ते दी थीं हमें या-रब आँखें
किधर क़फ़स था कहाँ हम थे किस तरफ़ ये क़ैद