लाज़िम है कि फ़िक्र-ए-रुख़-ए-दिलबर छोड़ूँ
वाजिब है यही अब कि मुक़र्रर छोड़ूँ
नासेह ने किया मुझ को भी आख़िर मजनूँ
हूँ क़ैद में जिस की उसे क्यूँ कर छोड़ूँ
Ahmad Faraz
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क्या आ के जहाँ में कर गए हम
अश्क के गिरते ही आँखों में अंधेरा छा गया
न रहा शिकवा-ए-जफ़ा न रहा
हर तरह से ज़ाएअ' है यहाँ हर औक़ात
ख़त ज़मीं पर न ऐ फ़ुसूँ-गर काट
मातम-ए-दीद है दीदार का ख़्वाहाँ होना
ख़ुर्शीद पे जिस वक़्त ज़वाल आता है
फ़िक्र-ए-सितम में आप भी पाबंद हो गए
ज़ोलीदा मुअम्मा है जहान-ए-पुर-पेच
इस बज़्म से मैदान में जाना होगा
इस वक़्त ज़माने में बहम ऐसे हैं
ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं