दीं ही बेहोश है न दुनिया बेहोश
हर शक्ल से है सूरत-ए-उक़्बा बेहोश
किस जाए पे आया हूँ 'क़लक़' मय पीने
होश भी कहता है कि इतना बेहोश
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पहले रख ले तू अपने दिल पर हाथ
है ख़मोशी-ए-इंतिज़ार बला
था आदम-ए-ख़ाकी ग़ज़ब बे-ज़िन्हार
जौहर-ए-आसमाँ से क्या न हुआ
वही वा'दा है वही आरज़ू वही अपनी उम्र-ए-तमाम है
ये वहम-ए-दुई दिल से जुदा करना था
दयार-ए-यार का शायद सुराग़ लग जाता
न पहुँचे हाथ जिस का ज़ोफ़ से ता-ज़ीस्त दामन तक
ख़ुद को कभी न देखा आईने ही को देखा
किस तरह से गिर्या को न हो तुग़्यानी
नाहक़ था 'क़लक़' मुझे ग़ुरूर-ए-इस्लाम