दामन से गुल-ए-ताज़ा महकते निकले
गुलशन से मुर्ग़-ए-गुल चहकते निकले
क्या कहिए 'क़लक़' कि साफ़ कहना मुश्किल
मय-ख़ाने से क्यूँ मस्त बहकते निकले
Habib Jalib
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Gulzar
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Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
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किस वास्ते दी थीं हमें या-रब आँखें
दिल से मुझे आने की है आन की आहट
जाहिल की है मीरास 'क़लक़' तख़्त-ओ-ताज
दरवाज़े पे तेरे ही मरूँगा या-रब
आप के महरम असरार थे अग़्यार कि हम
आलूदा ख़यालात में तेरे हूँ मुदाम
ख़ुद रफ़्ता हो बदमस्त हो कैसा है मिज़ाज
पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने
क्या ज़िक्र-ए-वफ़ा जफ़ा किसी से न बनी
किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई
नाला करता हूँ लोग सुनते हैं
अम्न और तेरे अहद में ज़ालिम