अंदाज़ा आदमी का कहाँ गर न हो शराब
पैमाना ज़िंदगी का नहीं गर सुबू न हो
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था आदम-ए-ख़ाकी ग़ज़ब बे-ज़िन्हार
कल तक थी ख़ुल्द ख़ाना-ज़ाद-ए-देहली
आप के महरम असरार थे अग़्यार कि हम
जी है ये बिन लगे नहीं रहता
दीदा-ए-सर्फ़-ए-इंतिज़ार है शम्अ
शहर उन के वास्ते है जो रहते हैं तुझ से दूर
क्या ख़ाना-ख़राबों का लगे तेरे ठिकाना
वाइ'ज़ ने मय-कदे को जो देखा तो जल गया
पी भी ऐ माया-ए-शबाब शराब
अफ़्साना-ए-यार बहर-ए-वसलत है लज़ीज़
किस तरह से गिर्या को न हो तुग़्यानी
है ख़मोशी-ए-इंतिज़ार बला